24 December 2017

Forest Resources (वन सम्पदा)

1865 में भारत का पहला वनों से सम्बंधित कानून भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया। इससे वनों की अन्धाधुंध कटाई में लगाम लगी। 1948 में केंद्रीय वानिकी परिषद् की स्थापना की गई।
राष्ट्रीय वन नीति 1998 के अनुसार देश के कुल क्षेत्रफल के 33 प्रतिशत भाग में वन होना आवश्यक है, जिसमे पर्वतीय क्षेत्र में न्यूनतम 60 प्रतिशत व मैदानी क्षेत्रों में 25 प्रतिशत वन आवश्यक हैं।
पर्यावरण एवं मंत्रालय की 14 वीं द्विवार्षिक भारत वन रिपोर्ट 2015 के अनुसार उत्तराखण्ड में  24240 वर्ग किलोमीटर है, जो की राज्य के क्षेत्रफल के 45.32 प्रतिशत है।
उत्तराखण्ड  में क्षेत्रफल की दृष्टि से वन क्षेत्र का घटता क्रम-

  1. पौड़ी गढ़वाल: 3271 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र।
  2. उत्तरकाशी:
  3. नैनीताल: जिले के भौगोलिक क्षेत्र का 72.64 प्रतिशत वन क्षेत्र जो की सर्वाधिक प्रतिशत है।
  4. चमोली:
  5. टिहरी:
  6. पिथौरागढ़:
  7. देहरादून:
  8. अल्मोड़ा:
  9. बागेश्वर:
  10. चम्पावत:
  11. रुद्रप्रयाग:
  12. हरिद्वार:
  13. उधम सिंह नगर: 564 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र, भौगोलिक क्षेत्र का 22.19 प्रतिशत वन क्षेत्र जो की न्यूनतम है  

वनों के प्रकार:-


उपोष्ण कटिबंधीय वन: ये 1200 मीटर से कम ऊँचाई वाले क्षेत्र में पाये जाते हैं। साल इन वनों का सबसे मुख्य वृक्ष है। और अन्य प्रमुख वृक्ष कुंज, सेमल, हल्दू, खैर, सीसू और बाँस हैं।
उष्ण कटिबंधीय शुष्क वन: ये 1500 मीटर से कम ऊँचाई वाले क्षेत्र में पाये जाते हैं। इन क्षेत्रों में कम वर्षा होती है व इन वनों की सबसे मुख्य प्रजाति ढाक, सेमल, गूलर, जामुन व बेर आदि हैं।
उष्ण कटिबंधीय आद्र पतझड़ वन: ये 1500 मीटर तक की ऊँचाई पर पाये जाते हैं। इन्हे मानसूनी वन भी कहते हैं। दून एवं शिवालिक श्रेणियों में ऐंसे वन पाये जाते हैं। इन वनों में सागौन, शहतूत, पलाश, अंजन, बहेड़ा, बांस और साल प्रमुख हैं।
कोणधारी वन: ये 900 मीटर से 1800 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्र में पाये जाते हैं। चीड़ इसका मुख्य वृक्ष है।
पर्वतीय शीतोष्ण वन: ये वन 1800 से 2700 मीटर तक की उँचाई पर पाये जाते हैं। इन वनों में स्प्रूस, सिल्वर, फर, देवदार, साइप्रस और ओक प्रमुख हैं।
एल्पाइन वन: ये 2700 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर प्राप्त होते हैं। जिनमे सिल्वर, फर, ब्ल्यू ,पाइन, स्प्रूस, देवदार, बर्च और बुरांस प्रमुख हैं।
एल्पाइन घास भूमि: ये 3000 मीटर से 3600 मीटर की ऊँचाई पर पाये जाते हैं। इनमे जूनिफर, विलो, रिब्स प्रमुख हैं।
टुंड्रा तुल्य वनस्पति: ये 3600 मीटर से 4800 मीटर की ऊँचाई पर पाये जाते हैं।

उत्तराखण्ड  में वन सम्बन्धी आंदोलन:-

  • रंवाई आन्दोलन 
  • चिपको आन्दोलन 
  • डूंगी पैंतोली आन्दोलन 
  • पाणी राखो आन्दोलन 
  • रक्षासूत्र आन्दोलन 
  • मैती आन्दोलन 
बांज का पेड़: इसे "उत्तराखण्ड का वन दान" / "शिव की जटा" भी कहते हैं। विश्व में इसकी कुल 40 प्रजातियाँ हैं
व उत्तराखण्ड  में 5  प्रजातियाँ हैं -सफेद, हरा/मोरु, भूरा/खरस, फल्यांट व रियाज।

20 December 2017

Adventure Tourism (साहसिक पर्यटन)

उत्तराखण्ड में स्थित पहाड़, झीलें, झरने व नदियाँ साहसिक पर्यटन के लिये पयटकों को उत्तराखण्ड की ओर आकर्षित करते हैं।

स्कीइंग:

औली: चमोली जनपद में समुद्र तट से 2800 मीटर स्थित एक खुबसूरत स्थल है। यह स्कीइंग के लिये पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ 2018 की स्कीइंग चैम्पियनशिप होना तय हुआ है।
दयारा बुग्याल: ऊंचाई पर पाये जाने वाले घास के मैदानों को बुग्याल कहते हैं। यह उत्तरकाशी जनपद में स्थित है। यह भी स्कीइंग के लिए प्रसिद्ध है।
मुंडाली: मुंडाली देहरादून जनपद के चकराता में स्थित है। यहाँ भी स्कीइंग के लिए सुन्दर ढालें हैं।

ट्रेकिंग :

उत्तराखण्ड पहाड़ी राज्य होने के कारण यहाँ पर्वतारोहण, ट्रेकिंग, रॉक क्लाइम्बिंग के कई अवसर हैं। यहाँ गौरी घाटी-मुनस्यारी, मिलम ग्लेशियर-रालम ग्लेशियर, गंगोत्री-केदारनाथ, केदारनाथ-वासुकीताल, फूलों की घाटी-हेमकुण्ड ट्रेक जैसे बेसुमार ट्रेकिंग स्थल हैं।
नेहरू इंस्टिट्यूट ऑफ़ मॉउंटेनियरिंग (NIM): नेहरू इंस्टिट्यूट ऑफ़ मॉउंटेनियरिंग की स्थापना, पर्वतारोहियों को प्रशिक्षित करने के लिए 14 नवम्बर को 1965 को उत्तरकाशी में की गई।

राफ्टिंग:

राफ्टिंग उत्तराखण्ड में सबसे लोकप्रिय साहसिक खेल है। उत्तराखण्ड में बहती नदियाँ बर्फीली ढलानों, घने जंगलों, चट्टानों, पहाड़ों से गुजरकर पर्यटकों को रोमांचक अनुभव की अनुभूति प्रदान करते हैं। अलकनन्दा, धौली गंगा, काली आदि नदियों में कई राफ्टिंग शिविर लगते हैं राफ्टिंग के लिए शिवपुरी से कौडियाला के मध्य के स्थान बहुत प्रसिद्ध हैं।

कैम्पिंग:

उत्तराखण्ड प्रकृति की गोद में बसा है जिससे यह कैम्पिंग के लिए शानदर स्थान है। टोंस घाटी, मसूरी झारिपानी, मालदेवता कैम्पिंग औली, चोपता, नैनीताल, बिनसर, शिवपुरी, उत्तराखण्ड में कैम्पिंग के लिए कुछ लोकप्रिय  स्थान हैं।

माउंटेन बाइकिंग:

हिमालय के सुन्दर दृश्यों और जोखिम भरी ढालों व चट्टानों के बीच बाइकिंग पर्यटयकों को रोमांचित करती है।
रुद्रप्रयाग-अगस्तमुनि-उखीमठ-चोपता-गोपेश्वर मार्ग, श्रीनगर-पौड़ी-खिर्सू-पाबौ-सतपुली-लैंसडाउन-कोटद्वार मार्ग, हरिद्वार-धूलखंड-मोहन-देहरादून मार्ग, नैनीताल-भवाली-रामगढ-मुक्तेश्वर मार्ग, अल्मोड़ा-कोसी-काठपुरीया-शीतलाखेत मार्ग, बाइकिंग के लिए उत्तराखण्ड में स्थित कुछ प्रसिद्ध मार्ग हैं। 

18 December 2017

Wildlife & Conservation (वन्यजीव एवं संरक्षण )


 राष्ट्रीय उद्यान

उत्तराखण्ड में कुल 6 राष्ट्रीय उद्यान हैं।

कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान:

कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान एशिया का पहला राष्ट्रीय उद्यान है। इसकी स्थापना 11 मई 1936 हेली राष्ट्रीय उद्यान के रूप में हुई। 1954 में इसका नाम रामगंगा राष्ट्रीय उद्यान रखा गया। 1957 में इसका नाम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान रखा गया। इसका कुल क्षेत्रफल 520 वर्ग किलोमीटर है। यह नैनीताल व पौड़ी गढ़वाल जिले में फैला है। इसका प्रवेश द्वार ढिकला है। और मुख्यालय नैनीताल के मध्य पाटली दून में है। 1973 को कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान भारत का पहला बाघ संरक्षित क्षेत्र बना। यहाँ लगभग 600 पक्षी प्रजातियाँ, 25 सरीसर्प प्रजातियाँ तथा लगभग 75 स्तनधारी जीव पाए जाते हैं।

गोविन्द राष्ट्रीय उद्यान:

गोविन्द राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना 1980 में हुई। यह उत्तरकाशी जिले में फैला हुआ है। इसके कार्य का संचालन राजाजी राष्ट्रीय उद्यान से होता है। इसका कुल क्षेत्रफल 470 वर्ग किलोमीटर है।  

नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान:

नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना 1982 में हुई। यह चमोली जिले में फैला हुआ है इसका मुख्यालय जोशीमठ में है। और इसका कुल क्षेत्रफल 624 वर्ग किलोमीटर है। 1998 में इसे यूनेस्को द्वारा प्राकृतिक धरोहर घोषित किया गया।

फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान / पुष्पावती राष्ट्रीय उद्यान:

फूलों की घाटी  राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना 1982 को हुई। यह चमोली जिले में फैला है। इसका मुख्यालय जोशीमठ में है। और इसका क्षेत्रफल 87.5 वर्ग किलोमीटर है। यह उत्तराखण्ड का सबसे छोटा उद्यान है। यह नर तथा गन्धमादन पर्वतों के बीच स्थित है। यहाँ पुष्पावती नदी बहती है। पुष्पावती नदी कामेट पर्वत से निकलती है। इस क्षेत्र को पुराणों में नन्दकानन कहा गया है। 2005 में इसको यूनेस्को द्वारा प्राकृतिक धरोहर घोषित किया गया।  इस क्षेत्र को विश्व ख्याति प्रदान करने का श्रेय फ्रैंक स्मिथ को जाता है। फ्रैंक स्मिथ ने वैली ऑफ़ फ्लावर नामक पुस्तक में यहाँ का वर्णन किया।

राजाजी राष्ट्रीय उद्यान:

राजाजी राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना 1983 में मोतीचूर पीला व राजाजी अभ्यारण को मिलाकर हुई। यह देहरादून, पौड़ी गढ़वाल और हरिद्वार जिलों में फैला हुआ है। इसका मुख्यालय देहरादून में स्थित है। व इसका क्षेत्रफल 820 वर्ग किलोमीटर है।

गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान:

गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना 1983 में हुई। यह उत्तरकाशी जिले में फैला है। इसका क्षेत्रफल 2390 वर्ग किलोमीटर है। ये उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा राष्ट्रीय उद्यान है।

वन्य जीव विहार

उत्तराखण्ड में पहले वन्य जीव संरक्षण केंद्र के रूप में मोतीचूर वन्य जीव विहार की स्थापना 1935 को की गयी, परन्तु 1983 राजाजी राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर इसे उसमे मिला दिया गया।
गोविन्द वन्य जीव विहार: इसकी स्थापना 1955 में उत्तरकाशी में हुई इसका कुल क्षेत्रफल 958 वर्ग किलोमीटर है 
केदारनाथ वन्य जीव विहार: इसकी स्थापना 1972 में हुई। यह चमोली व रुद्रप्रयाग के 967 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। 
अस्कोट कस्तूरी मृग विहार: इसकी स्थापना 1986 में पिथौरागढ़ जनपद में हुई। इसका कुल क्षेत्रफल 600 वर्ग किलोमीटर है।
सोना नदी वन्य जीव विहार: इसकी स्थापना 1987 में पौड़ी गढ़वाल जनपद में हुई। इसका कुल क्षेत्रफल 301 वर्ग किलोमीटर है।
बिनसर वन्य जीव विहार: इसकी स्थापना 1988 में अल्मोड़ा जनपद में हुई। इसका कुल क्षेत्रफल 47 वर्ग किलोमीटर है।
बिनोग माउंटेन क्वेल वन्य जीव विहार: इसकी स्थापना 1993 में देहरादून जनपद के मसूरी में हुई। इसका कुल क्षेत्रफल 11 वर्ग किलोमीटर है।
नन्धौर वन्य जीव विहार: इसकी स्थापना 2012 में नैनीताल में हुई। इसका कुल क्षेत्रफल 269 वर्ग किलोमीटर है।

संरक्षित आरक्षित क्षेत्र 

आसन संरक्षण आरक्षित क्षेत्र: इसकी स्थापना देहरादून जनपद में 2005 में 4. 4 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में हुई। यह भारत का पहला संरक्षणआरक्षित क्षेत्र है।
झिलमिल आरक्षित क्षेत्र: इसकी स्थापना हरिद्वार जनपद में 37.83 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में हुई।

उच्च स्थलीय राष्ट्रीय उद्यान 

पण्डित गोविन्द बल्लभ पन्त उच्च स्थलीय प्राणी उद्यान: इसकी स्थापना 1995 में नैनीताल जनपद में हुई।इसका कुल क्षेत्रफल 4.69 वर्ग किलोमीटर है। 

जैवमण्डलीय सुरक्षित क्षेत्र 

नन्दादेवी जैवमण्डलीय सुरक्षित क्षेत्र: इसकी स्थापना 1988 में हुई यह पिथौरागढ़, बागेश्वर व चमोली जनपद में 5860 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है।

 






17 December 2017

Religious Tourism-2 (धार्मिक पर्यटन-2)

पंचबद्री, पंचकेदार और पंचप्रयाग के अतिरिक्त उत्तराखंड में और भी धार्मिक स्थल हैं, जिनके अपने अलग-अलग महत्व हैं।
उन धार्मिक स्थलों में से कुछ महत्वपूर्ण निम्नलिखित हैं।
कालीमठ: कालीमठ रुद्रप्रयाग जनपद में स्थित है। यह अकेला ऐसा शक्ति पीठ है, जहाँ देवी काली अपने बहनों देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती के साथ पूजी जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मंदिर के 8 किलोमीटर ऊपर काली शिला नामक स्थान पर देवी काली प्रकट हुई और कालीमठ में रक्तबीज,शुम्भ-निशुम्भ आदि दानवों का वध कर अंतर्ध्यान हो गई। यह क्षेत्र तांत्रिक साधना के लिए प्रसिद्ध है।
पूर्णागिरि मन्दिर: पूर्णागिरि मन्दिर चम्पावत जिले के टनकपुर में काली नदी के तट पर अन्नपूर्णा पर्वत के शिखर पर स्थित है। यहाँ प्रसिद्ध पूर्णागिरि मेला लगता है, यह विषुवत संक्रांति से लगभग चालीस चलता है।
नैना देवी मन्दिर: नैना देवी मन्दिर नैनीताल जनपद में स्थित है।प्राचीन नैना देवी मन्दिर का निर्माण श्री मोतीराम शाह ने करवाया जो की  1880 में भयंकर भू-स्खलन से नष्ट हो गया था। भूस्खलन के कारण दबी मूर्ति को 1882 में निकालकर पुनः मन्दिर बनाकर स्थापित किया गया।
हरिद्वार: हरिद्वार नील और विल्व पर्वत के बीच शिवालिक पर्वत श्रंखला के तलहटी पर स्थित है। यहाँ से गंगा मैदानी भागों में उतरती है। इसका प्राचीन नाम खांडव वन था। धार्मिक पुस्तकों में हरिद्वार को गंगाद्वार, मायापुर आदि नामों से उल्लेखित किया गया है। यह हिमालय के चार धामों का प्रवेश द्वार और हिन्दुओं के सात पवित्रतम स्थलों में एक है। यहाँ हर 12 वर्षों में महाकुंभ व 6 वर्षों में अर्धकुम्भ का आयोजन होता है।
कनखल: कलखल शिव की राजधानी थी। यह हरिद्वार में गंगा के पश्चिम में स्थित है। यहाँ प्रजापति मंदिर, सती  कुंड, दक्षेश्वर महादेव मंदिर अन्य आकर्षण के केंद्र हैं।
चण्डी देवी मन्दिर: चण्डी देवी मन्दिर हरिद्वार में नील पर्वत शिखर पर स्थित है। इसकी स्थापना कश्मीर के शासक सुभाष सिंह ने की, जबकि चंडी देवी की मूर्ति यहाँ आदि गुरु शकराचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी में की गयी थी। यहाँ रोप वे की सुविधा है।
मंशा देवी मन्दिर: मंशा देवी मन्दिर हरिद्वार में विल्व पर्वत पर स्थित है। यहाँ भक्त अपनी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए आते हैं। 
पिरान कलियर: पिरान कलियर हरिद्वार स्थित है। यहाँ चिश्ती सूफी संत अलाउद्दीन अली अहमद सबीर कलियर की दरगाह है। इस दरगाह का निर्माण इब्राहिम लोदी ने करवाया।
वाराही देवी मन्दिर: वाराही देवी मन्दिर चम्पावत के देवीधुरा में स्थित है। यहाँ रक्षाबंधन के दिन बग्वाल मेले का आयोजन होता है। इसमें दो समूहों के बीच पाषाण युद्ध होता है।
गिरिजा देवी मन्दिर: गिरिजा देवी मंदिर नैनीताल  जनपद में रामनगर के समीप गर्जिया नामक स्थान में कोसी नदी के मध्य एक टीले में स्थित है।
जागेश्वर धाम: जागेश्वर धाम अल्मोड़ा जनपद में स्थित है यह लगभग 124 छोटे-बड़े मन्दिरों का समूह है, इनका निर्माण काल 9वीं से 13वीं शताब्दी है यहाँ जागेश्वर मन्दिर, चांडी मन्दिर, दिनेश्वर मन्दिर, कुबेर मन्दिर, महा मृत्युंजय मन्दिर, नवदुर्गा मन्दिर, नवग्रह मन्दिर, पिरामिड मन्दिर, सूर्य मंदिर आदि प्रमुख मन्दिर हैं। जिनमे महा मृत्युंजय मंदिर सबसे पुराना व दिनेश्वर मन्दिर सबसे बड़ा मंदिर है।

द्वाराहाट: द्वाराहाट अल्मोड़ा जनपद में स्थित है। इसे उत्तर की द्वारिका भी कहा जाता है। यहाँ गुज्जर देव मन्दिर, शीतला मन्दिर, दुनागिरि मन्दिर आदि मन्दिर मुख्य हैं। इसे मन्दिरों का गाँव भी कहा जाता है।
चितई गोलू देवता मन्दिर: यह अल्मोड़ा जनपद में स्थित  है। इसे न्याय के देवता भी कहा जाता है। उत्तराखण्ड  में गोलू देवता के चार मंदिर मुख्य हैं।

  • चितई  गोलू देवता मन्दिर
  • चम्पावत गोलू देवता मन्दिर
  • घोड़ाखाल गोलू देवता मन्दिर
  • ताड़ीखेत गोलू देवता मन्दिर

कटारमल सूर्य मन्दिर: कटारमल सूर्य मन्दिर अल्मोड़ा जनपद के कटारमल नामक स्थान में स्थित है। इसका निर्माण कुणिंद शासक अमोघभूति ने किया।
नीलकण्ठ मन्दिर: नीलकण्ठ मन्दिर पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर ब्लॉक में मणिकूट, चित्रकूट तथा विष्णुकूट पर्वतों के बीच पंकजा और मधुमिता नदी के संगम पर स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहाँ समुद्र मंथन से निकले विष को भगवान शिव ने अपने कण्ठ में धारण किया था।
बागनाथ मन्दिर: बागनाथ मंदिर बागेश्वर में स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहाँ ऋषि मार्कण्डेय ने यहाँ शिव की पूजा की और भगवान शिव ने यहाँ उन्हें बाघ के रूप में दर्शन दिये।
थल केदार: थल केदार पिथौरागढ़ जनपद में स्थित शिव मंदिर है।
हाट कालिंका मन्दिर : हाटकालिंका मंदिर पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट में स्थित है। इस पीठ की स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की।
कमलेश्वर मन्दिर: कमलेश्वर मन्दिर पौड़ी गढ़वाल के श्रीनगर में स्थित है। स्कंदपुराण के अनुसार त्रेता युग में श्री राम जब रावण का वध कर ब्रह्म हत्या के पाप से कलंकित हुए, तो उन्होंने यहाँ कमलों से शिव की पूजा की।
हेमकुण्ड साहिब: हेमकुण्ड साहिब चमोली जनपद में स्थित है। यहाँ सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह ने तपस्या की। 1930 में संत सोहन सिंह ने इसकी खोज की व 1936 में गुरूद्वारे की स्थापना की।
श्री गुरु राम राय दरबार साहिब: श्री गुरुराम राय दरबार साहिब देहरादून में स्थित है। इसकी स्थापना 1699 में उदासीन सम्प्रदाय के गुरु राम राय द्वारा की गई।

Religious Tourism-1 (धार्मिक पर्यटन-1)

उत्तराखण्ड मन्दिरों व मठों के कारण हिन्दू धर्म के लिए विशेष स्थान रखता है। विभिन्न मन्दिरों व मठों की उपस्थिति के कारण ही उत्तराखण्ड को देवभूमि भी कहा जाता है।

पंचबद्री

ये भगवान विष्णु से सम्बंधित पांच मन्दिर हैं, व पांचों चमोली जनपद में स्थित हैं
बद्रीनाथ (विशाल बद्री): बद्रीनाथ में भगवान विष्णु की पद्मासन मुद्रा लगभग 1 मीटर लम्बी काले पत्थर  प्रतिमा है। यह मन्दिर नर और नारायण पर्वत शिखरों मध्य, नीलकंठ पर्वत में, अलकनंदा नदी के किनारे स्थित है। यहाँ पंचशिला, पंचकुण्ड व पंचधाराऐं स्थित हैं। तप्त कुण्ड पंचकुण्डों में एक गर्म जल का कुण्ड है। स्कन्द पुराण के अनुसार आदि गुरू शंकराचार्य ने विष्णु भगवान (बद्रीनाथ) की मूर्ति नारदकुण्ड से निकालकर मन्दिर में स्थापित की। यह भारत व उत्तराखंड के चार धामों में एक है बद्रीनाथ के कपाट अप्रैल व मई के मध्य खोले व नवम्बर में बंद किये जाते हैं।
आदि बद्री: आदि बद्री कर्णप्रयाग में स्थित है, यह चौदह मंदिरों का समूह है। यहाँ भगवान विष्णु की 1 मीटर ऊंची काले पत्थर की मूर्ति है।
वृद्ध बद्री: वृद्ध बद्री को प्रथम बद्री भी कहा जाता है। यहाँ श्री लक्ष्मी नारायण की प्राचीन मूर्ति है।
योग्धयान बद्री: योगध्यान बद्री, पांडुकेश्वर(जोशीमठ) में स्थित है। यहाँ भगवान विष्णु की मूर्ति योगध्यान मुद्रा में है।
भविष्य बद्री: भविष्य बद्री में भगवान विष्णु मूर्ति आधी आकृति की है। भविष्य बद्री के बारे में यह मान्यता है कि भविष्य में जब बद्रीनाथ धाम का मार्ग बंद हो जायेगा, तब यह मूर्ति पूरा आकार लेकर भगवान बद्री के रूप में प्रकट जाएगी।

पंचकेदार

पंचकेदार भगवान शिव से सम्बंधित मन्दिर हैं, इन मन्दिरों में शिव के अलग अलग अंगों की पूजा होती है।
केदारनाथ: केदारनाथ रुद्रप्रयाग जनपद में केदार नामक चोटी पर स्थित है। यहाँ भगवान शिव के पार्श्व भाग की पूजा होती है। यह 12 ज्योतिर्लिंगों में एक है (12 ज्योतिर्लिंगों में एक ज्योतिर्लिंग केदारनाथ उत्तराखंड में स्थित है। )। इसे प्रथम केदार भी कहा जाता है।
मदमहेश्वरनाथ: मदमहेश्वरनाथ रुद्रप्रयाग जनपद में चौखम्बा पर्वत पर स्थित है। यहाँ भगवान शिव की नाभि की पूजा होती है। इसे द्वितीय केदार भी कहा जाता है।
तुंगनाथ: तुंगनाथ रुद्रप्रयाग जनपद में चंद्रशिला पर्वत पर स्थित है, यह सबसे अधिक ऊंचाई (3680) पर स्थित  है।  यहाँ भगवान  शिव की भुजाओं की पूजा होती है। मंदिर के समीप रावण शिला है, यहाँ रावण ने भगवान शिव के आराधना की। इसे तृतीय केदार भी कहा भी कहा जाता है।
रुद्रनाथ: रुद्रनाथ चमोली जनपद में स्थित है। यहाँ भगवान शिव की मुखाकृति की पूजा होती है।
कल्पेश्वरनाथ: कल्पेश्वरनाथ चमोली जनपद में स्थित है। यहाँ भगवान  शिव की जटाओं की पूजा होते है।

पंचप्रयाग

विष्णुप्रयाग: विष्णुप्रयाग चमोली जनपद में विष्णु गंगा एवं धौली गंगा के संगम पर स्थित है।
नंदप्रयाग: नंदप्रयाग चमोली जनपद में अलकनंदा एवं नन्दकिनी के संगम पर स्थित है
कर्णप्रयाग: कर्णप्रयाग चमोली जनपद में अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर स्थित है। पिंडर नदी को कर्ण गंगा भी कहा जाता है। कर्ण ने यहाँ सूर्यदेव की तपस्या की
रुद्रप्रयाग: रुद्रप्रयाग रुद्रप्रयाग जनपद में अलकनंदा एवं मन्दाकिनी के संगम पर स्थित है 1854 में स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा 1890 में विवेकानन्द ने यहाँ की यात्रा की
देवप्रयाग: देवप्रयाग टिहरी जनपद में अलकनंदा एवं भागीरथी के संगम में स्थित है। इसे देव शर्मा नामक तपस्वी ने बसाया देवप्रयाग को सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है यहाँ प्राचीन रघुनाथ मन्दिर स्थित है, जो द्रविड़ शैली में है

हिमालय के चार धाम / उत्तराखण्ड  के चार धाम 

गंगोत्री: गंगोत्री मंदिर उत्तरकाशी जनपद में स्थित है। इसकी स्थापना गोरखा शासक अमर सिंह थापा ने की व जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने इसकी मरम्मत करवाई। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहाँ सूर्यवंशी राजा भागीरथ ने अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए घोर तप किया, जिसके फलस्वरूप देवी गंगा यहाँ अवतरित हुई। 
यमुनोत्री: यमुनोत्री मंदिर उत्तरकाशी जनपद में स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहां असित मुनि का निवास था। और वर्तमान मंदिर की स्थापना जयपुर की महारानी गुलेरिया ने की जो भूकंप के कारण क्षति ग्रस्त हो गया था, अतः इसका पुनर्निर्माण करना पड़ा।
केदारनाथ:
बद्रीनाथ: 

नन्दा देवी राजजात 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार नन्दा देवी को भगवान शिव की पत्नी माना जाता है और कैलास को भगवान शिव का निवास मान्यता है, की एक बार नन्दा देवी अपने मायके आई थी, लेकिन किन्हीं कारण से वह 12 वर्ष तक ससुराल नहीं जा सकी बाद में उन्हें आदर-सत्कार के साथ ससुराल भेजा गया
नन्दादेवी राजजात का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष में होता है यह एशिया की सबसे बड़ी पद यात्रा है व चमोली के नौटी गाँव से शुरू होकर होमकुंड तक पंहुचती है
यह अंतिम बार किन्ही कारणों से 14 साल  बाद 18 अगस्त 2014 से 6 सितम्बर 2014  तक हुई

Uttrakhand Tourism (उत्तराखण्ड पर्यटन)

भारत के उत्तर में स्थित उत्तराखण्ड में ऊंचे-ऊंचे झरने, सुन्दर हिमनद व पहाड़, मनमोहक झीलें, मक्खमली घास व फूलों से सुसज्जित मनोहर बुग्याल, अनेक प्रकार के पशु पक्षियों से भरे जंगल और कई धर्मों के धार्मिक स्थल हैं; जिनका दीदार करने के लिए देश-विदेश से पर्यटक उत्तराखण्ड आते हैं। यहाँ की शुद्ध जलवायु पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए उत्तराखंड सरकार ने उत्तरांचल पर्यटन विकास परिषद अधिनियम 2001 लागू कर, पर्यटन नीति 2001 को मंजूरी दी व इसके फलस्वरूप उत्तराखण्ड पर्यटन विकास बोर्ड की स्थापना की गई।उत्तराखण्ड पहला राज्य है, जिसने अपने  पर्यटन विकास बोर्ड की स्थापना की। उत्तराखंड का पर्यटन मॉडल सिंगापुर से लिया गया है। और इसका नीति वाक्य "धरती का स्वर्ग" है।

उत्तराखण्ड पर्यटन नीति 2001 के मुख्य बिंदु इस प्रकार है- 
  • पर्यटन को पर्यावरण के अनुकूल और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के अनुरूप बनाने के लिए ईको टूरिज्म को प्रोत्साहित करना। 
  • पर्यटकों को उनकी रुचि व आर्थिक क्षमतओं के अनुरूप सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों की सहभागिता बढ़ाना।
  • मनोरंजन पर्यटन के साथ-साथ साहसिक पर्यटन का विकास करना।
  • पर्यटकों की सुविधा के लिए परिवहन की सुविधाएं उपलब्ध कराना। 
  • पर्यटन स्थलों का प्रचार करने के लिए सूचना प्रद्योगिकी का उपयोग करना। 
  • पर्यटन स्थलों को विकास करने लिए विभिन्न स्रोतों से पूँजी निवेश में वृद्धि का प्रयास करना।

उत्तराखण्ड को पर्यटन के क्षेत्र में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है जिनमे कुछ निम्नलिखित हैं।
  • 2000-2001 में उत्तराखण्ड को "पर्यटन प्रोत्साहन" के लिए पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय  पुरस्कार दिया गया 
  • 2004 में पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार द्वारा "Best Practices" पुरस्कार दिया गया।
  • 2004 में "Best State Tourism Board Express" - गैलिलिओ पुरस्कार से सम्मानित किया गया
  • 2007 में पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार द्वार "Tourist Destination Religious Tourism" सम्मान से सम्मानित किया गया 
  • 2012 में Travel & Leisure Magazine द्वारा "Best Emerging Destination (India)" सम्मान से सम्मानित किया गया 
  • 2013 में Lonely Planet Magazine द्वारा "Best Destination for adventure (India)" सम्मान से सम्मानित किया गया 


उत्तराखण्ड पर्यटन विकास बोर्ड की Official Website - http://www.uttarakhandtourism.gov.in

Tribes of Uttrakhand (उत्तराखण्ड की जनजातियाँ)

उत्तराखण्ड की जनजातियाँ 

उत्तराखण्ड में निवासरत 5 जनजातियों को वर्ष 1967 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया। ये जनजातियाँ निम्नलिखित हैं।

थारु :

थारु उत्तराखंड में निवास करने वाला सबसे बड़ा जनजातिय समूह है। थारु मुख्यता नैनीताल, खटीमा, किच्छा, सितारगंज, नानकमत्ता आदि क्षेत्रों में निवास करते हैं। थारु खुद को महाराणा प्रताप के वंशज मानते हैं। थारु समाज मातृसत्तात्मक होता है। इनका भोजन मुख्यता चावल और मछली है। थारु सामाजिक रूप से कई गोत्र व जातियोँ में बंटा है। बडवायक, बट्टा रावत, वृतियाँ, महतो व दहेत आदि इनकी प्रमुख जातियाँ हैं। इनके मुख्य देवता भूमिया या बड़ा देवता, पछावन और खडगाभूत हैं। राकट, कोरोदेव व कलुआ जानवरों की रक्षा करने वाले देवता हैं। होली को ये शोक पर्व के रूप में मानते हैं। होली के अवसर पर ये खिचड़ी नृत्य का आयोजन करते हैं।

जौनसारी:



जौनसारी उत्तराखण्ड में निवास करने वाला दूसरा सबसे बड़ा जनजातिय समूह है। ये खुद को पांडवों का वंशज मानते हैं। जौनसारी मुख्यता देहरादून जनपद के चकराता, लाखामंडल, कालसी, त्यूणी, देवधार आदि क्षेत्रों; टिहरी जनपद के जौनपुर क्षेत्र व उत्तरकाशी में निवास करते हैं। जौनसारी समाज पितृसत्तात्मक होता है। पूर्व काल से इस जनजाति में बहुपति प्रथा रही है, जो की अब समाप्त हो रही है। जौनसारी महासू, वाशिक, बोठा, पवासी और चालदा देवता को अपना संरक्षक मानते हैं। रासो, हारुल, परात नृत्य, तांदी इनके मुख्य नृत्य हैं हारुल नृत्य में रामतुला नामक वाद्ययंत्र बजाया जाता है। इनके त्योहारों में बिस्सु, नुणाई, दीपावली, व जागड़ा मुख्य है। जागड़ा महासू देवता का त्यौहार है। इस दिन हनोल में महासू देवता को स्नान कराया जाता है।

भोटिया:

भोटिया खुद को खस राजपूत मानते है। ये अर्धघुमन्तू होते है। मारछा, तोलछा, जोहरी, जाड, शोंका, दरमिया आदि इनकी उपजातियां हैं। चमोली में मारछा, तोलछा; उत्तरकाशी में जाड और पिथौरागढ़ में जोहारी व शोंका भोटिया रहते हैं। भोटिया हिंदी व बौद्ध धर्म में विश्वास रखते हैं। भोटिया भुम्याल, ग्वाला बैग, रैग, चिम, नंदा देवी, कैलाश पर्वत, दुर्गा, द्रोणागिरी पर्वत, हाथी पर्वत, घंटाकर्ण / घड़ियाल, फैला, धुरमा आदि देवी देवताओं की अराधना करते है। इनकी भाषा रोम्बा व मुख्य त्यौहार लौहसर व सूरगेन है। लौहसर बसंत पंचमी के दिन मनाया जाता है। इनमे प्रत्येक 12 वर्षों में अगस्त व सितम्बर के मध्य कंडाली नामक उत्सव मनाया जाता है। कंडाली उत्सव जोरावर सिंह के सेना के हार में पिथौरागढ़ में मनाया जाता है। जोरावर सिंह ने 1841 में लद्दाख से यहाँ आक्रमण किया।

बुक्सा:

बुक्सा खुद को पंवार वंश के राजपूत मानते है। ये मुख्यतय उधमसिंह नगर के बाजपुर, काशीपुर व गदरपुर; नैनीताल के रामनगर; पौड़ी गढ़वाल के दुग्गड़ा और देहरादून के डोईवाला, सहसपुर में रहते हैं। बुक्सा पांच उपजातियों में विभक्त है, जो कि युद्धवंशी, राजवंशी, पवार, परतजा व तुनवार हैं। बुक्सा देवी के उपासक होते हैं। ये मुख्य रूप से दुर्गा,चामुंडा, हुल्का, ज्वाल्पा देवी और सकारिया देवता जी पूजा करते हैं। इनके मुख्य त्यौहार चैती, नोबी होली दीपावली आदि हैं। 

राजी:

राजी खुद को रजवार वंश के मानते हैं। ये मुख्य रूप से पिथौरागढ़ नैनीताल व चम्पावत में निवास करते हैं। इन्हे वनराजी, वनरावत, जंगल का राजा आदि नामों से भी जाना जाता है। ये प्रकृति, बागनाथ, गणनाथ, मलेथानाथ, सैंम, मल्लिकार्जुन आदि देवी देवताओं की पूजा करते हैं। इनका मुख्य नृत्य रिखनृत्य है। 

Rivers of Uttrakhand (उत्तराखण्ड की नदियॉं)

गंगा नदी तंत्र

 



गंगा, उत्तराखण्ड में ही नहीं अपितु भारत में बहने वाली महत्वपूर्ण नदी है। गंगा को देवप्रयाग तक भागीरथी के नाम से जाना जाता है व देवप्रयाग में अलकनंदा के मिलने से गंगा के नाम से जाना जाता है। भारत में गंगा की लम्बाई 2525 km है। और उत्तराखंड में लगभग 96 km है।

अलकनन्दा उपतंत्र :

अलकनन्दा का उद्गम स्थल संतोपथ ग्लेशियर है। विष्णु प्रयाग तक अलकनंदा को विष्णु गंगा के नाम से जाना जाता है। अलकनंदा के मुख्य सहायक नदियाँ निम्नलिखित हैं।
लक्ष्मण गंगा:
धौली गंगा: (उद्गम स्थल-देववन ग्लेशियर) धौली गंगा व विष्णु गंगा के संगम स्थल  विष्ण प्रयाग है।
नंदाकिनी: ( उद्गम-नंदा घुंघटी) नंदाकिनी व अलकनंदा के संगम स्थल को नन्द प्रयाग है।
पिण्डर: (उद्गम स्थल पिण्डर ग्लेशियर) पिण्डर व अलकनंदा का संगम स्थल कर्ण प्रयाग है।
मन्दाकिनी: (उद्गम स्थल-चोराबाड़ी ग्लेशियर)अलकनन्दा व मन्दाकिनी का संगम स्थल रुद्रप्रयाग है।
विरथी 
नबालिका 

भागीरथी उपतंत्र:

भागीरथी का उद्गम स्थल गौमुख है। इसकी कुल लम्बाई लगभग 205 km है। भागीरथी की सहायक नदियाँ निम्नलिखित हैं।
मिलुंग गंगा: 
केदार गंगा:
जाड गंगा/ जाह्नवी:
सिया गंगा:
भिलंगना: भिलंगना का उद्गम स्थल खतलिंग ग्लेशियर है। भिलंगना की मुख्य सहायक नदियाँ -धर्म गंगा, दूध गंगा, बाल गंगा है।

नयार उपतंत्र:

पूर्वी व पश्चिमी नयार दूधातोली से उद्गमित होने के बाद अलग- अलग स्थानों से बहकर सतपुली में मिलती हैं। व व्यास घाटी में गंगा में समा जाती हैं।

ऋषिकेश में चंद्रभागा और हरिद्वार में रतमऊ व सोलानी नदी गंगा से मिलती हैं।
गंगा हरिद्वार से उत्तराखंड से बाहर निकल जाती है। 

यमुना नदी उपतंत्र 

यमुना नदी का उद्गम स्थल यमुनोत्री ग्लेशियर है। यमुना, गंगा की मुख्य सहायक नदी है। यह गंगा से इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश ) में मिलती है। यमुना की लम्बाई 1376 km व उत्तराखंड में यमुना की लम्बाई लगभग 148 km है यमुना धालीपुर (देहरादून) से उत्तराखण्ड से बाहर निकल जाती है।
यमुना की मुख्या सहायक नदियाँ निम्नलिखित हैं।
हनुमान गंगा:
कृष्ण गाड़:
कमल गाड़:
टोंस नदी: टोंस नदी का उद्गम रूपिन सुपिन ग्लेशियर है व डाक पत्थर में यह यमुना से मिल जाती है। 

काली नदी / शारदा नदी उपतंत्र 

काली नदी का उद्गम स्थल कालापानी (लिपुलेख) है। यह टनकपुर में पूर्णागिरि के पास ब्रह्मदेव मंडी में शारदा के नाम से नेपाल में प्रवेश करती है। काली नदी की सहायक नदियॉं निम्नलिखित है।
सरयू: ये सरमूल से पंचेश्वर तक बहती है। 
पूर्वी धौली गंगा: उद्गम -गोवाना ग्लेशियर 
गौरी गंगा: ये मिलम ग्लेशियर से जौलजीवी तक बहती है।
कुठियांग्टी:
लधिया: ये गजार (पिथौरागढ़ नैनीताल व अल्मोड़ा का मिलन बिंदु) से चूका (चम्पावत) तक बहती है।

अन्य नदियाँ 

पूर्वी रामगंगा: ये पोन्टिंग ग्लेशियर से रामेश्वर तक बहती है।
पश्चिमी राम गंगा:  ये दूधातोली से कालागढ़ तक बहती है।
कोसी: ये धारपनीधार  (बागेश्वर) से उद्गमित होकर सुल्तानपुर (उधमसिंह नगर ) से राज्य से बाहर निकल जाती है।
गोला: पहाड़पानी (नैनीताल) से उद्गमित होकर किच्छा से राज्य से बाहर निकाल जाती है।


नन्धौर: ये देओह से नानकसागर तक बहती है।

Important Regiments of Uttrakhand (उत्तराखण्ड की प्रमुख रेजीमेंट)

गढ़वाल राइफल्स 

गढ़वाल राइफल्स की स्थापना 5 मई 1887 को अल्मोड़ा में हुई, बाद में इस बटालियन को कालोडांडा (लैंसडाउन) नामक पहाड़ी स्थान पर फाैजी छावनी बनाने के लिए भेजा गया।
गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन के नायक दरबान सिंह नेगी पहले उत्तराखंडी सैनिक थे, जिन्हें 1914 में विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। उत्तराखण्ड के लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स के रेजिमेंटल संग्रहालय को इनके नाम पर दरबान सिंह संग्रहालय नाम दिया गया है।
राइफलमैन गब्बर सिंह नेगी को मर्णोपरान्त विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
गढ़वाल राइफल नीति वाक्य "युद्ध कृति निश्चय" है।

कुमाऊं रेजिमेंट

कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना 27 अक्टूबर 1945 को हुई। 1948 को इसका मुख्यालय आगरा से रानीखेत स्थापित किया गया। कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन के मेजर सोमनाथ शर्मा को 1947 में मर्णोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। ये परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति थे।
कुमाऊं रेजीमेंट का नीति वाक्य "पराकर्मों विजयते" है

गोरखा बटालियन

1815 में उत्तराखण्ड में गोरखा राज के पतन के बाद अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए गोरखा भर्ती में छूट मिल गई।

बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप एंड सेंटर ( बी ई जी):



बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप एंड सेंटर की नींव 1808 में कानपुर में कैप्टन थॉमस ने बंगाल पायनियर्स के नाम से रखी। 1819 में बंगाल सैंपर्स का गठन किया गया। बाद में दोनों को मिलाकर बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप एंड सेंटर की स्थापना हुई। 1953 में इसका मुख्यालय लुधियाना से रुड़की स्थापित किया गया।

*उत्तराखंड  में कुल 9 सैन्य छावनियाँ स्थापित हैं*

Imporatant Movement of Uttrakhand (उत्तराखण्ड के प्रमुख जन आन्दोलन)

डोला पालकी आंदोलनज

जयानंद भारती ने सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ  यह आन्दोलन शुरू किया। इस आंदोलन से पूर्व दलित वर्ग के दूल्हा दुल्हन को पालकी व अन्य सवारियों में नहीं बिठाया जाता था।

कोटा खर्रा आंदोलन

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद किसान संगठनों के नेतृत्व में तराई क्षेत्रों में सीलिंग कानून लागू करा कर भूमिहीनों को भूमि वितरण कराने हेतु यह आंदोलन किया गया।

चिपको आंदोलन

1974 में गोपेश्वर के रैणी ग्राम की 23 वर्षीय गौरा देवी ने पेड़ों के अंधाधुंध कटाई को रोकने हेतु चिपको आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन में महिलाओं ने महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। सुंदरलाल बहुगुणा व चंडी प्रसाद भट्ट ने चिपको आंदोलन को शििख रख का नारा,  "क्या है इस जंगल के उपकार मिट्टी पानी और बयार। मिट्टी पानी और बयार जिंदा रहने के आधार।।" था।
गौरा देवी को चिपको वुमन भी कहा जाता है।
1981 में चंडी प्रसाद भट्ट को रैमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया।

मैती आंदोलन

पर्यावरण संरक्षण के लिए ये आंदोलन महिलाओं द्वारा शुरू किया गया। हिमालयन एक्शन रिसर्च सेंटर के अनुसार, गांव की सभी कुंवारी लड़कियां एक समूह बनाकर अपने में से बड़ी लड़की को बड़ी दीदी चुनती हैं। बड़ी दीदी सभी लड़कियों  नेतृत्व करती है। यह समूह पौधों की नर्सरी तैयार करता है, जिसे मैती नर्सरी कहते हैं।

पाणी राखो आंदोलन

80 के दशक में उफरैंखाल ( पौड़ी गढ़वाल) में सच्चिदानन्द भारती ने ये आंदोलन शुरु किया। इन्होने दूधातोली लोक विकास संस्था का गठन किया। 2015 में जयानंद भारती को भागीरथी प्रयत्न पुरस्कार मिला।

डुंगी पतौली आन्दोलन

‌‌यह बांज के वृक्षों की निरन्तर कटाई के विरोध में चमोली जिले में शुरू हुआ।

रक्षा सूत्र आंदोलन

यह टिहरी जिले के भिलंगना क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण हेतु 1994 में अस्तित्व में आया।

Pancheswar Dam (पंचेश्वर बांध)

पंचेश्वर बांध काली नदी पर प्रस्तावित एक द्वी-राष्ट्रीय, बहुउद्देश्यीय जल विद्युत परियोजना है। काली नदी को कालापानी गाड़, शारदा व महाकाली के नाम भी जाना जाता है व इसका पौराणिक नाम श्यामा है। यह लिपुलेख दर्रे के पास कालापनी नामक स्थान से निकलती है। और भारत नेपाल के बीच अन्तर्राष्ट्रीय सीमा बनती है। 1954 में जवाहर लाल नेहरू ने पंचेश्वर बांध परियोजना की बात कही थी व 1981 में यह परियोजना प्रस्तवित हुई। 12 फरवरी 1996 को इस परियोजना को शुरू करने के लिए भारत और नेपाल के "मध्य महाकाली जल विकास संधि" के नाम से एक समझौता हुआ। उत्तराखंड राज्य सरकार ने 2012 में इसको मंजूरी दी। भारत और नेपाल की सरकारों ने 2014 में "भारत और नेपाल पंचेश्वर बांध प्राधिकरण" का गठन कर इस परियोजना को साकार करने की दिशा में एक और कदम बढ़ाया। इस प्राधिकरण का मुख्यालय महेन्द्रनगर (नेपाल) में स्थापित किया गया है।
पंचेश्वर बांध, रूस के 335 मीटर ऊंचे 'रोगुन बांध' के बाद दुनिया का दूसरा सबसे ऊँचा बांध होगा इसकी ऊंचाई 315 मीटर होगी और यह चीन के 'थ्री जोन्स बांध ' के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध होगा। इस परियोजना से भारत व नेपाल का लगभग 134 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जलमग्न हो जायेगा; जिसमे 120 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भारत का व 14 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र नेपाल का होगा। पंचेश्वर बांध को नियंत्रित करने के लिए दो बांध - रुपाली गाड़ बांध (लगभग 240 मेगावाट) व पूर्णागिरि बांध (240 मेगावाट) भी बनेंगे। पंचेश्वर बांध सरयू और काली नदी के संगम के 2 किलोमीटर नीचे बनेगा Rock Fill Technique से बनेगा। 2018 से इस परियोजना का कार्य शुरू हो जायेगा। इसका निर्माण कार्य पूर्ण करने का लक्ष्य 2028 रखा गया है। इसकी अनुमानित लागत लगभग 34 हजार करोड़ है व इससे 4800 मेगावाट से अधिक बिजली का उत्पादन होगा। और तीनो बांधों को मिलकर 6400 मेगावाट से अधिक बिजली का उत्पादन हो सकेगा।
पंचेश्वर बांध परियोजना से बिजली उत्पादन के साथ-साथ सिंचाई व्यवस्था का विकास भी होगा और इससे बरसात के समय काली नदी व इसकी सहायक नदियों के कारण आने वाली बाढ़ के प्रभाव को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकेगा। इसके द्वारा उत्पादित बिजली का 12 प्रतिशत उत्तराखण्ड को रॉयल्टी के रूप में मिलेगी।
एक और इस बांध के बनाने से अनेकों फायदे होंगे तो इस परियोजना से पिथौरागढ़, चम्पावत, अल्मोड़ा में लगभग 150 गाँव प्रभावित होंगे। इनके पुनर्वास की व्यवस्था करना एक चुनौती भरा काम है। क्योंकि ये बांध भूकम्प जोन 4 में बन रहा है, तो कुछ भू वैज्ञानिक इस बात से चिंतित भी हैं की इतना बड़ा बाँध इस क्षेत्र की भूगर्वीय हलचलों को बड़ा देगा।

Independence Movements in Uttrakhand (उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता संग्राम)

1857 में चम्पावत के बिसुंग गांव के कालू मेहरा ने क्रांतिवीर संगठन की स्थापना की। (कालू मेहरा उत्तराखण्ड का पहला स्वतंत्रता सेनानी था।)
1870 में डिबेटिंग क्लब की स्थापना की गई।
1871 अल्मोड़ा अख़बार का प्रकाशन शुरु हुआ।
1886 में जवालादत्त जोशी ने कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में भाग लिया।
1903 में पण्डित गोविंद बल्लभ पन्त ने हैप्पी क्लब की स्थापना की।
1905 में गढ़वाल यूनियन ने देहरादून से गढ़वाल पाक्षिक प्रकाशन शुरु किया जो 1913 से साप्ताहिक हो गया।
1911-1917 में उत्तराखण्ड में वन नीति का विरोध हुआ।
1913 को बद्रीदत्त पांडेय अल्मोड़ा अखबार के संपादक बने।
1914 विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पांडेय, चिरंजीलाल व हेमचंद द्वारा होमरूल की स्थापना  गई।
1916 में कुमाऊं परिषद गठन किया गया, जिसका 1926 को कांग्रेस में विलय हो गया।
1918 के अल्मोड़ा अख़बार के होली के अंक में बद्रीदत्त पांडेय के लेख ने डिप्टी कमिश्नर लामस के काले कारनामों पर प्रहार किया, जिससे अल्मोड़ा अख़बार पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
1918 को बैरिस्टर मुकुन्दी लाल व अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा ने गढ़वाल कांग्रेस कमेटी की स्थापना की।
1919 कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में बैरिस्टर मुकुन्दीलाल व अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा ने भाग लिया।
1921 में 40000 स्वतंत्रता सेनानियों ने बागेश्वर में सरयू नदी में कुली बेगार के रजिस्टर नदी में बहा दिए और कुली बेगार न करने की शपथ ली।
14 जून 1929 से 2 जुलाई 1929 गांधी जी व नेहरू जी ने कुमाऊं की यात्रा की। गांधी जी 12 दिन कौसानी में रहे व यहां गांधी जी ने "अनाशक्ती योग" की रचना की।
(गांधी जी  कौसानी को उत्तराखण्ड का स्विट्ज़रलैंड कहा।)
16 अक्टूबर 1929 से 24 अक्टूबर 1929 में गांधी जी ने गढ़वाल की यात्रा की।
26 जनवरी 1930 को टिहरी रियासत छोड़ उत्तराखण्ड में  अलग अलग स्थानों में तिरंगा फहराया गया।
12 मार्च 1930 से 6 अप्रैल 1930 को गांधी जी ने साबरमती से डांडी तक डांडी मार्च किया। इसमें 78 लोगों ने भाग लिया जिनमें 3 उत्तराखंडी थे(ज्योतिराम कांडपाल, खड़क बहादुर, भैरव दत्त जोशी)।
23 अप्रैल 1930 को 2/18 गढ़वाल राइफल के वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली ने पेशावर में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया। इस घटना को पेशावर कांड के नाम  जाना जाता है।
1930 में दुग्गडा ( पौड़ी गढ़वाल ) में राजनैतिक सम्मेलन हुआ।
1937 में भवानी सिंह रावत ने गडोदया डकैती को अंजाम दिया।
1937 में शांति लाल त्रिवेदी जी ने चुनौदा ( सोमेश्वर) में गांधी आश्रम की स्थापना की।
1941 में सरला बहन ने कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की  व मीरा बहन ने ऋषिकेश में पशुलोक की स्थापना की।
5 सितंबर 1942 को खुमाड़ ( सल्ट क्षेत्र) में पुलिस ने जनता पर गोलियां चलाई।(गांधी जी ने कुमाऊं के सल्ट क्षेत्र को उत्तराखण्ड  बारदौली कहा।)
खुमाड़ में प्रतिवर्ष 5 सितंबर को शहीद स्मृति दिवस मनाया जाता है।
आजाद हिन्द फौज : आजाद हिन्द फौज में उत्तराखण्डियों ने महत्तवपूर्ण भागीदारी निभाई। इसमें लगभग 2500 उत्तराखंडी सैनिक थे। कैप्टन बुद्धि शरण बिष्ट बोस के निजी सहायक, पितृशरण रतूड़ी सुभाष रेजिमेंट की प्रथम बटालियन के कमांडर व सूबेदार लेफ्टिनेंट चन्द्र सिंह नेगी सिंगापुर ऑफिसर्स ऑफ ट्रेनिंग के कमांडर थे।

Movements for Separate Uttrakhand State (उत्तराखण्ड राज्य हेतु आंदोलन)

6 मई 1938  को पण्डित जवाहर लाल नेहरू जी ने कहा कि "इस पर्वतीय अंचल को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति की समृद्ध करने के अवसर व अधिकार मिलने चाहिए।"
1938 में श्री देव सुमन ने पृथक राज्य हेतु गढ़ सेवा संघ की स्थापना की बाद में इसका नाम हिमालय सेवा संघ कर दिया गया।
1946 को हल्द्वानी में बद्रीदत्त पांडेय द्वार पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा व अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठित करने की मांग की।
1950 को हिमालयी राज्य (हिमाचल व उत्तराखण्ड) के लिए पर्वतीय जन विकास समिति का गठन हुआ।
1954 में विधानपरिषद सदस्य इन्द्र सिंह नयाल द्वार पर्वतीय क्षेत्रों के लिए पृथक विकास योजनाओं का आग्रह किया।
1955 में फजल अली आयोग ने इस क्षेत्र को अलग राज्य बनाने के उद्देश्य से उत्तरप्रदेश पुनर्गठन आयोग की स्थापना की।
1957 ने मानवेन्द्र शाह ने पृथक राज्य आन्दोलन को अपने स्तर से शुरु किया।
1979 में उत्तराखण्ड क्रांति दल की स्थापना की गई, व इसके अध्यक्ष देवीदत्त पन्त बनाए गए।
23 अप्रैल 1987 में त्रिवेंद्र पंवार ने अलग राज्य की मांग हेतु संसद में पत्र बम फेंका।
20 अगस्त 1991  तत्कालीन राज्य सरकार (जिसका नेतृत्व बी जे पी कर रही थी।) ने पहली बार पृथक उत्तरांचल राज्य के गठन के लिए केंद्र को प्रस्ताव भेजा।
1993 में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव अलग राज्य के गठन के लिए कौशिक समिति गठन किया।
1 सितम्बर 1994 को खटीमा गोलीकांड में लगभग 25 लोग शहीद हुए।
2 सितंबर 1994 को मसूरी गोलीकांड में लगभग 8 लोग शहीद हुए।
2 अक्टूबर 1994 को रामपुर तिराह गोलीकांड में लगभग 8 लोग शहीद हुए।
15 अगस्त 1996 में प्रधानमंत्री हरदनहल्ली देवगौड़ा ने उत्तरांचल राज्य निर्माण की घोषणा की।
1 अगस्त 2000 को उत्तरांचल राज्य विधेयक लोकसभा पारित हुआ।
10 अगस्त 2000 को उत्तरांचल राज्य विधेयक राज्यसभा पारित हुआ।
28 अगस्त को राष्ट्रपति कोच्चरिल रमण नारायण द्वारा उत्तरांचल राज्य विधेयक को मंजूरी मिली।
9 नवंबर 2000  देश का 27 वां राज्य बना।
1 जनवरी 2007 को उत्तरांचल का नाम उत्तराखण्ड किया गया।

Merger of Tehri Principality (टिहरी रियासत का भारत में विलय)

सुदर्शन शाह ने 1815 को टिहरी रियासत की स्थापना की। सुदर्शन शाह "बोलदा बद्रीनाथ" कहा जाता है, इनके बाद 1859 को भवानी शाह गद्दी बैठा। 1871 में प्रताप शाह गद्दी बैठा, इसने 1877 में प्रताप नगर की स्थापना की। प्रताप शाह के बाद कीर्ति शाह गद्दी पर बैठा, इसने कीर्तिनगर स्थापना की व 1897 में टिहरी घंटाघर की स्थापना की। 1897 में ही टिहरी शहर को नगर पालिका का दर्जा मिला। 1913 में नरेंद्र शाह गद्दी पर बैठा। इस समय किसानो की भूमियों को वन भूमि में शामिल किया गया, जिसके विरोध में रंवाई गाँव की जनता ने आजाद पंचायत का गठन किया। 30 मई 1930 को तिलाड़ी के मैदान में आजाद पंचायत के बैठक में रंवाई के लोग शामिल हुए, जिन पर टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल ने सेना को गोली चलाने का आदेश दिया। इस घटना से 70 लोग शहीद हुए व इस घटना को तिलाड़ी कांड के नाम से जाना जाता है। प्रतिवर्ष  30 मई को तिलाड़ी कांड में शहीद हुए लोगों की स्मृति में इस क्षेत्र में शहीद मेले का आयोजन है। 1939 में टिहरी में श्री देव सुमन, दौलतराम व नागेंद्र शकलानी के प्रयासों से प्रजामंडल की स्थापना हुए। 1944 को श्री देव सुमन को कैद कर दिया गया, जहां 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद इनकी मृत्यु गई। 1946 को मानवेन्द्र शाह गद्दी पर बैठे व 1948 में  कीर्तिनगर में राजशाही के विरोध में आंदोलन हुआ। अंत में 15 अगस्त 1949 को मानवेन्द्र शाह में विलीनीकरण पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए फलस्वरूप टिहरी रियासत का भारत वर्ष में विलय हो गया और टिहरी उत्तरप्रदेश का एक जनपद बन गया।

Modern History of Uttrakhand (उत्तराखंड का आधुनिक इतिहास)

गोरखा शासन

उत्तराखण्ड में गोरखा शासन को गोरख्याणी  कहा जाता है। गोरखाओं ने 1790 में कुमाऊँ पर व 1804 में गढ़वाल में अपना अधिकार किया। गोरखा शासन के समय हरिद्वार दासमण्डी थी। इस काल में सुदर्शन शाह अपने राज्य को पाने की कोशिश करता रहा व अंग्रेजों से मदद ली। अंग्रेजों व गोरखाओं के मध्य जगह-जगह युद्ध हुए। खलंगा (नालापानी) में गोरखाओं का नेतृत्व बलभद्र शाह ने किया जो की अमर सिंह थापा का भतीजा था। बलभद्र शाह अंत में शहीद हो गया व अंग्रेजों ने इसके सम्मान में खलंगा में एक स्मारक बनाया। दूसरी ओर अमर सिंह थापा मालवदुर्ग में शहीद हो गया।

अंग्रेजी शासन 

4 मार्च 1816 में अंग्रेजों ने नेपाल के साथ सुगौली की संधि की जिसमे नेपाल के ओर से गुरु गजराज मिश्र व अंग्रेजों की ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किये। अंग्रेजों को गोरखाओं से कुमाऊं मिला व सुदर्शन शाह द्वार युद्ध व्यय सात लाख रुपए न चुका पाने की वजह से सुदर्शन शाह को गढ़वाल का कुछ भाग अंग्रेजों को देना पड़ा। 3 मई 1815 को उत्तरखंड में अंग्रेजों ने पहला कमिश्नर कर्नल एडवर्ड गार्डनर को नियुक किया। 1817 में देहरादून को साहरनपुर जनपद में जोड़ा गया। 1840 में पौड़ी गढ़वाल जिले के स्थापना कर इसका मुख्यालय पौड़ी को बनाया गया। 1891 में कुमाऊं जिले से दो जिलों के स्थापना की -1 अल्मोड़ा, 2 नैनीताल। 1902 में अवध, आगरा और उत्तराखंड को जोड़ कर संयुक्त प्रान्त का गठन किया गया।

टिहरी रियासत 

सुदर्शन शाह:इन्होने टिहरी रियासत की स्थापना की। 28 दिसम्बर 1815 को राजधानी टिहरी स्थापित की। ये सूरत के नाम से कविताएँ लिखते थे।- प्रमुख रचना सभासागर 
मानवेन्द्र शाह: टिहरी रियासत का अंतिम शासक।

Medieval History of Uttrakhand (उत्तराखंड का मध्यकालीन इतिहास)

कुमाऊँ का चन्द वंश


थोहर चन्द:
इनको चन्द वंश का संस्थापक माना गया है।
गरुड़ ज्ञान चन्द:
ये एक शक्तिशाली चन्द शासक थे।
देव चन्द:
ये  एक अयोग्य शासक था इसे चन्द वंश का तुगलक भी कहा जाता है।
कल्याण चन्द चतुर्थ:
इस काल में रोहिलाओं ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया, जिससे कुमाऊं को अत्याधिक नुकसान हुआ। इस स्थित में गढ़वाल के शासक प्रदीपशाह ने कल्याण चन्द की मदद की।
महेंद्र चन्द:
ये चन्द वंश के अंतिम शासक थे व 1790 में गोरखा शासक रणबहादुर से पराजित हुए।

कुमाऊँ के प्रमुख किले
खगमरा किला: इसका निर्माण भीष्म चन्द ने करवाया व यह अल्मोडा में  स्थित है।
लालमण्डी किला(फोर्ट मोयरा): इसका निर्माण राजा कल्याण चन्द ने 1563 करवाया। अल्मोड़ा पल्टन बाजार  स्थित है।
सिरमोही किला: यह लोहाघाट में स्थित ग्राम सिरमोली में है।
राजबुंगा किला: इसका निर्माण सोमचन्द ने किया व यह चम्पावत में स्थित है।
नैथड़ा किला: यह गोरखाकालीन किला है व अल्मोडा में स्थित है।
मल्ला महल किला: इसका निर्माण कल्याण चन्द ने करवाया। ये अल्मोड़ा नगर में स्थित है वर्तमान में यहाँ कचहरी जिलाधीश कार्यालय व अन्य सरकारी दफ्तर हैं।

गढ़वाल का परमार वंश 

परमार वंश का संस्थापक कनकपाल को माना गया है।
अजयपाल:
इन्होने राजधानी को चांदपुरगढ़ी से देवलगढ़ व इसके बाद 1517 में श्रीनगर स्थानान्तरित की।
भानुप्रताप:
ये प्रतापी परमार शासक थे।
बलभद्रशाह:
इन्होने सर्वप्रथम शाह की उपाधि ली।
मानशाह:
ये अति प्रतापी शासक थे और "गर्वभञ्जन" व  "महाराजाधिराज" की उपाधि ली।
महीपति शाह:
इनकी पत्नी रानी कर्णावती (नाक कटी रानी) थी। इनके सेनापति माधोसिंह थे।
पृथ्वीपति शाह:
इन्होने दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को आश्रय दिया। इनकी संरक्षिका रानी कर्णावती थी। इसी समय 1635 में नवाजत खान के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने दून पर आक्रमण कर दिया, जिसे रानी कर्णावती ने असफल किया। 
फतेहपति शाह:
इन्होने 1676 में सिख गुरु राम राय को दून में आश्रय दिया।
प्रद्युमन शाह:


इन्होने 1791 में गोरखा आक्रमण को असफल कर गोरखाओं से "लँगूरगढ़ की संधि" की। 1795 में भयंकर अकाल पड़ा व 1803 में भीषण भूकम्प आया, जिससे गढ़वाल को बहुत नुकसान पहुंचा। फरवरी 1803 में गोरखाओं ने अमर सिंह थापा व हस्ती दल चौतरिया के नेतृत्व में गढ़वाल में आक्रमण किया। 14 मई 1804 को खुड़बुड़ा के निर्णायक युद्ध में प्रद्युमन शाह शहीद हो गये। गोरखाओं ने सम्मान के साथ इनका अंतिम संस्कार किया। प्रद्युमन शाह के दो पुत्र थे- पहला प्रीतम शाह इससे गोरखाओं ने काठमांडू में नजरबन्द कर दिया और दूसरा सुदर्शन शाह जो हरिद्वार चला गया व अपने राज्य को पुनः हासिल करने की कोशिशें करने लगा।

Ancient History of Uttrakhand (उत्तराखण्ड का प्राचीन इतिहास)


कुणिन्द शासन:

कुणिन्द उत्तराखंड में शासन करने वाली प्रथम राजनैतिक शक्ति थी, ये मौर्यो के अधीन थे। अमोघभूति सबसे शक्तिशाली कुणिन्द शासक था, इसने कटारमल सूर्य मन्दिर (अल्मोड़ा ) का निर्माण करवाया व रजत एवं कांस्य की देवी तथा मृग वाली मुद्राऐं चलाई।
कालसी में सम्राट अशोक का एक शिलालेख है, इसके अनुसार यहाँ पुलिंदों का निवास था व इस क्षेत्र का नाम अपरान्त था।

शक शासन: 

इन्होने कुणिन्दों के मैदानी भागों में शासन किया। जिनमें  वीरभद्र (वर्तमान नाम ऋषिकेश), मयूरध्वज (वर्तमान नाम कोटद्वार), गोविषाण (वर्तमान नाम काशीपुर) मुख्य हैं।

कुषाण शासन:

कुषाणों ने भी कुछ स्थानों में शासन किया। इसी समय उत्तराखण्ड में यौधेय राजवंश का शासन भी था। यौधेय शासक शीलवर्मन ने बाड़वाल यज्ञ वेदिका का निर्माण करवाया।

कर्तृपुर राज्य:

इस राज्य में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश व उत्तरी रोहिलखण्ड में सम्मिलित थे, इसकी स्थापना कुणिन्दों की। समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भलेख में कर्तृपुर राज्य को गुप्त साम्रज्य की उत्तरी सीमा में स्थित एक अधीनस्थ राज्य कहा गया है। नागों ने कुणिन्दों को हरा कर यहाँ अपना अधिपत्य स्थापित। कन्नौज के मौखरियों ने नागों को हराकर अपना अधिपत्य स्थापित किया। हर्षवर्धन के काल में 634 ईस्वी में चीनी यात्री ह्वेनसांग उत्तराखंड आया, इसने गंगा को "महाभद्रा", हरिद्वार को "मयूला" व उत्तराखंड को "पोलहिमोपुलो"कहा। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कर्तृपुर राज्य छोटे-छोटे राज्यों में टूट गया।

कार्तिकेयपुर राजवंश:

ये कुमाऊं के शासक थे, इनकी राजधानी लगभग 300 वर्षों तक जोशीमठ रही व उसके बाद बैजनाथ स्थानांतरित की गयी। इनकी राजभाषा संस्कृत थी।
बसन्तन देव- कार्तिकेयपुर राजवंश का संस्थापक। इसने परमभद्याराक महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की।
खर्परदेव-
निम्बरदेव- निम्बरदेव शैव था। इसने जागेश्वर में विमान का निर्माण करवाया।
इष्टगण- उपाधि "परमभट्टारक महाराजाधिराज"
इसने उत्तराखण्ड को एकसूत्र में बाँधा व जागेश्वर में नवदुर्गा, महिषमर्दिनी,  लकुलीश व नटराज मन्दिर का निर्माण करवाया।
ललितशूर- ललितशूर से संभंधित दो ताम्रपत्र मिले हैं।

कत्यूरी वंश:

ये कार्तिकेयपुर राजवंश की ही एक शाखा थे।
कत्यूरियों की अन्य शाखाएं 
  • सलोणदित्य 
  • असांतिदेव 
  • डोटी के मल्ल 
  • अस्कोट के रजवार 
1191 में अशोक चल्ल ने कत्यूरियों से कुछ भाग जीता।
1223 में क्रचल्ला देव ने कत्यूरियों से कुछ भाग जीता।
1398-1399 में तैमूर ने हरिद्वार पर आक्रमण किया, जहाँ इसका सामना ब्रह्मदेव से हुआ। इसमें ब्रह्मदेव मारा गया। 



आदि गुरु शंकराचार्य कार्तिकेयपुर शासन में उत्तराखंड आये व 820 ईस्वी में इनकी मृत्यु हो गयी।

Protohistoric Period of Uttrakhand (उत्तराखंड का आद्य -इतिहास)

आद्य-इतिहास में साहित्यिक स्रोतों द्वारा मिले जानकारियां आती हैं। संसार की पहली पुस्तक ऋग्वेद में उत्तराखंड का उल्लेख मिलता है व इसमें उत्तराखंड को देवभूमि और मनीषियों की पूर्ण भूमि कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उत्तराखंड कुरुओं का स्थान था। पालि भाषी बौद्ध ग्रथों में उत्तराखण्ड को हिमवन्त कहा गया है। पुराणों में उत्तराखंड को ब्रह्मपुर,खसदेश व उत्तर-खंड कहा गया है। स्कन्द पुराण में पांच हिमखंडों का उल्लेख है-
1 नेपाल 
2 कश्मीर
3 जालन्धर
4 केदारखंड (गढ़वाल)- हरिद्वार से हिमालय तक विस्तार 
5 मानसखंड  (कुमाऊँ)- कालगिरी पर्वत से नंदादेवी पर्वत तक विस्तार 
रामयण के अनुसार लक्ष्मण ने टिहरी जिले के तपोवन में तपस्या की, सीता जी ने पौड़ी गढ़वाल के सितोन्स्यूं पट्टी में धरती माँ की शरण ली और श्री राम ने देवप्रयाग में अंतिम छंणों में तपस्या की, यहाँ श्री राम का रघुराम मन्दिर है।
महाभारत वनपर्व के अनुसार पांडवो ने लोमश ऋषि के साथ हरिद्वार से भृंगतुंग (वर्तमान केदारनाथ) की यात्रा की, उस समय यहाँ पुलिंद एवं किरात जाति का अधिपत्य था। पुलिंद राजा विराट की राजधानी विराटगढ़ी (जौनसार में) थी। राजा विराट की पुत्री उत्तरा थी, जो कि अभिमन्यु की विहाता थी। उत्तरा और अभिमन्यु का पुत्र परिक्षित था।
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार चम्पावत में स्थित कांतेश्वर पर्वत पर भगवन विष्णु ने कूर्मावतार किया था, इसे काना पर्वत व कांडा पर्वत भी कहते हैं।

Prehistoric age of Uttrakhand (उत्तराखण्ड का प्रागैतिहासिक काल)

मानव सभ्यता के इतिहास में "प्रागैतिहासिक काल" लाखों वर्ष तक व्याप्त रहा है। इस काल में आदि मानव मुख्य रूप से गुफाओं में निवास करते थे और पाषाण उपकरण का उपयोग करते थे। उत्तराखण्ड में प्रागैतिहासिक काल से सम्बंधित कई स्थलों की खोज हुई है, जिनमे कुछ महत्वपूर्ण स्थल निम्नलिखित हैं।-

Important Sites:

लखु उड़्यार : लखु उड़्यार अल्मोड़ा जिले में सुयाल नदी के किनारे बसे बाड़ेझीना गांव में स्थित है। यह उत्तराखण्ड में प्रागैतिहासिक काल की पहली खोज है। इस गुफा के चित्र का मुख्य विषय समूहबद्ध नर्तन है, कुछ पशुओं का चित्रण भी है। इसके अतिरिक्त लहरदार रेखाओं एवं बिंदुओं से निर्मित ज्योमितीय चित्रण भी हुआ है। (गुफा को उत्तराखंड की स्थानीय भाषा में उड़्यार कहते है।) 
ग्वारख्या उड़्यार: इसकी खोज हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यलाय  के दल ने की तथा यह चमोली जिले में अलकनंदा घाटी के डूंगरी गॉव में स्थित है। यहाँ मानवों व पशुओं (भेड़, बारहासिंघा आदि) के रंगीन चित्रों का चित्रण है।
किमनी: यह चमोली जिले में पिण्डर घाटी में स्थित है। यहाँ सफेद रंग से रंगे उपकरण व पशुओं के चित्र चित्रित हैं।
मलारी: यह चमोली जिले में स्थित है व यहाँ  नर कंकाल, जानवरों के कंकाल, मृदभांड, 5.2 KG सोने के आभूषण और कुछ शवाधान भी मिले हैं।
हुड़ली: यह उत्तरकाशी में स्थित है व यहाँ शैलचित्रो में नीले रंग का उपयोग किया गया है।
ल्वेथाप: यह अल्मोड़ा जिले में स्थित है व यहाँ नृत्य व शिकार करते मानवों के चित्र चित्रित हैं।
पेटशाल: यह अल्मोड़ा जिले में स्थित है व यहाँ नृत्य करती मानव आकृतियां मिली हैं।
फलसीमा: यह अल्मोड़ा जिले में स्थित है व यहाँ मानव की योगमुद्राओं एवं नृत्यमुद्राओं का चित्रण हुआ हैं।
बाणकोट: यह पिथौरागढ़ स्थित है व यहाँ तांबे के 8 उपकरण मिले हैं, जो अब अल्मोड़ा राजकीय संग्रालय में हैं।
रामगंगा घाटी: यहाँ शवागार एवं कपमार्क्स मिले हैं।

(विशाल शिलाखण्डों पर बने ओखल के आकार के गड्ढ़ों को पुरातत्व विज्ञान में कपमार्क्स कहते हैं।)
(गुफा को उत्तराखंड की स्थानीय भाषा में उड़्यार कहते है।)

Forest Resources (वन सम्पदा)

1865 में भारत का पहला वनों से सम्बंधित कानून भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया। इससे वनों की अन्धाधुंध कटाई में लगाम लगी। 1948 में केंद्रीय ...